पिताजी आपने मेरे लिये किया क्या है?
"अजी सुनते हो? राहूल को कम्पनी में जाकर टिफ़िन दे आओगे क्या?"
"क्यों आज राहूल टिफ़िन लेकर नहीं गया।?" शरद राव जी ने पुछा।
एक औरत की महत्वाकांक्षा। THE IMPORTANCE OF WOMEN IN LIFEआज राहूल की कम्पनी के चेयरमैन आ रहे हैं, इसलिमाता पिता का महत्वये राहूल सुबह 7 बजे ही निकल गया और इतनी सुबह खाना नहीं बन पाया था।"
"ठीक हैं। दे आता हूँ मैं।"
शरद राव ने हाथ का पेपर रख दिया और वो कपडे बदलने के लिये कमरे में चले गये। पुष्पाबाई ने राहत की साँस ली। की
मतलब माँ और राहूल के बीच हुआ विवाद शारद राव जी ने नहीं सुना था।
विवाद भी कैसा ? हमेशा की तरह राहूल का अपने पिताजी पर दोषारोपण करना और
पुष्पाबाई का अपनी पति के पक्ष में बोलना।
विषय भी वही! हमारे पिताजी ने हमारे लिये क्या किया? मेरे लिये क्या किया हैं मेरे बाप ने ?
"माँ! मेरे मित्र के पिताजी भी शिक्षक थे, पर देखो उन्होंने कितना बडा बंगला बना लिया। नहीं तो एक ये हमारे पापा अभी भी हम किराये के मकान में ही रह रहे हैं।"
"राहूल, तुझे मालूम हैं कि तुम्हारे पापा घर में बडे हैं। और दो बहनों और दो भाईयों की शादी का खर्चा भी उन्होंने उठाया था। सिवाय इसके तुम्हारी बहन की शादी का भी खर्चा उन्होंने ने ही किया था। अपने गांव की जमीन की कोर्ट कचेरी भी लगी ही रही। ये सारी जवाबदारियाँ किसने उठाई?"
"क्या उपयोग हुआ उसका? उनके भाई - बहन बंगलों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने सोचा कि हमारे लिये जिस भाई ने इतने कष्ट उठाये उसने एक छोटा सा मकान भी नहीं बनाया, तो हम ही उन्हें एक मकान बना कर दे दें ?"
एक क्षण के लिए पुष्पाबाई की आँखें भर आईं।
क्या बतायें अपने जन्म दिये पुत्र को की"बाप ने क्या किया मेरे लिये" पुछ रहा हैं?
फिर बोली ....
"तुम्हारे पापा ने अपना कर्तव्य निभाया। भाई-बहनों से कभी कोई आशा नहीं रखी। "
राहूल मूर्खों जैसी बात करते हुए बोला — "अच्छा वो ठीक हैं। उन्होंने हजारों बच्चों की ट्यूशन्स ली। यदि उनसे फीस ले लेते तो आज पैसो में खेल रहे होते।
आजकल के क्लासेस वालों को देखो। इंपोर्टेड गाड़ियों में घुमते हैं।"
"यह तुम सच बोल रहे हो। परन्तु, तुम्हारे पापा का मानना था, ज्ञान दान का पैसा नहीं लेना।
उनकी इसी सोच की वजह से के आज उनकी कितनी प्रसिद्धि हुई। और कितने पुरस्कार मिलें। उसकी कल्पना हैं तुझे।"
ये सुनते ही राहूल एकदम नाराज हो गया।
"क्या चाटना हैं उन पुरस्कारों को? उन पुरस्कारों से घर थोडे ही बनेगा। पडे हैं धूल खाते हुए। कोई नहीं पुछता उनको।"
इतने में दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। राहूल ने दरवाजा खोला तो शरदराव जी खडे थे।
पापा ने उनका बोलना तो नहीं सुना इस डर से राहूल का चेहरा उतर गया। परन्तु, शरद राव जी बिना कुछ बोले अन्दर चले गये। और वह विवाद वहीं खत्म हो गया।
ये था पुष्पाबाई और राहूल का कल का झगड़ा, पर आज ....
शरद राव जी ने टिफ़िन साईकिल पर अटकाया और तपती धूप में औद्योगिक क्षेत्र की राहूल की कम्पनी के लिये निकल पडे।
7 किलोमीटर दूर कंपनी तक पहुचते - पहुंचते उनका दम फूल गया था। कम्पनी के गेट पर सिक्युरिटी गार्ड ने उन्हें रोक दिया।
"राहूल पाटील साहब का टिफ़िन देना हैं। अन्दर जाँऊ क्या?"
"अभी नहीं बड़े सहाब आये हुए है ।" गार्ड बोला।
"चेयरमैन साहब आये हुए हैं। उनके साथ मिटिंग चल रही हैं। किसी भी क्षण वो मिटिंग खत्म कर आ सकते हैं। आप बाजू में ही रहो। चेयरमैन साहब को आप दिखना नहीं चाहिये।"
शरद राव जी थोडी दूरी पर धूप में ही खडे रहे। आसपास कहीं भी छांव नहीं थी।
थोडी देर बोलते बोलते एक घंटा निकल गया। पांवों में दर्द उठने लगा था।
इसलिये शरद राव जी वहीं एक तपते पत्थर पर बैठने लगे, तभी गेट की आवाज आई। शायद मिटिंग खत्म हो गई होगी।
चेयरमैन साहेब के पीछे पीछे कई अधिकारी और उनके साथ राहूल भी बाहर आया।
उसने अपने पिताजी को वहाँ खडे देखा तो मन ही मन नाराज हो गया।
चेयरमैन साहब कार का दरवाजा खोलकर बैठने ही वाले थे तो उनकी नजर शरद राव की ओर उठ गई।
"वो सामने कौन खडा हैं?" उन्होंने सिक्युरिटी गार्ड से पुछा।
"अपने राहूल सर के पिताजी हैं। उनके लिये खाने का टिफ़िन लेकर आये हैं।"
गार्ड ने कंपकंपाती आवाज में कहा।
"बुलवाइये उनको।"
जो नहीं होना था वह हुआ।
राहूल के तन से पसीने की धाराऐं बहने लगी। क्रोध और डर से उसका दिमाग सुन्न हुआ जान पडने लगा।
गार्ड के आवाज देने पर शरद राव पास आये।
चेयरमैन साहब आगे बढे और उनके समीप गये।
"आप पाटील सर हैं ना? डी. एन. हाई स्कूल में शिक्षक थे।"
"हाँ। आप कैसे पहचानते हो मुझे?"
कुछ समझने के पहले ही चेयरमैन साहब ने शरदराव जी के चरण छूये। सभी अधिकारी और राहूल वो दृश्य देखकर अचंभित रह गये।
"सर, मैं अतिश अग्रवाल। आपका विद्यार्थी। आप मुझे घर पर पढ़ाने आते थे।"
" हाँ.. हाँ.. याद आया। बाप रे बहुत बडे व्यक्ति बन गये आप तो ..."
चेयरमैन हँस दिये। फिर बोले, "सर आप यहाँ धूप में क्या कर रहे हैं। आईये अंदर चलते हैं। बहुत बातें करनी हैं आपसे।
सिक्युरिटी तुमने इन्हें अन्दर क्यों नहीं बिठाया?"
गार्ड ने शर्म से सिर नीचे झुका लिया।
वो देखकर शरद राव ही बोले — "उनकी कोई गलती नहीं हैं। आपकी मिटिंग चल रही थी। आपको तकलीफ न हो, इसलिये मैं ही बाहर रूक गया।"
"ओके... ओके...!"
चेयरमैन साहब ने शरद राव जी का हाथ अपने हाथ में लिया और उनको अपने आलीशन चेम्बर में ले गये।
"बैठिये सर। अपनी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बोले।
"नहीं। नहीं। वो कुर्सी आपकी हैं।" शरद राव जी सकपकाते हुए बोले।
"सर, आपके कारण वो कुर्सी मुझे मिली हैं।
तब पहला हक आपका हैं।"
चेयरमैन साहब ने जबरदस्ती से उन्हें अपनी कुर्सी पर बिठाया।
"आपको मालूम नहीं होगा सर.."
जनरल मैनेजर की ओर देखते हुए बोले,
"पाटिल सर नहीं होते तो आज ये कम्पनी नहीं होती और मैं मेरे पिताजी की अनाज की दुकान संभालता रहता।"
राहूल और जी.एम. दोनों आश्चर्य से उनकी ओर देखते ही रहे।
"स्कूल समय में मैं बहुत ही डब्बू विद्यार्थी था। जैसे तैसे मुझे नवीं कक्षा तक पहूँचाया गया। शहर की सबसे अच्छी क्लासेस में मुझे एडमिशन दिलाया गया। परन्तु मेरा ध्यान कभी पढाई में नहीं लगा। उस पर अमीर बाप की औलाद। दिन भर स्कूल में मौज मस्ती और मारपीट करना। शाम की क्लासेस से बंक मार कर मुवी देखना यही मेरा शगल था। माँ को वो सहन नहीं होता। उस समय पाटिल सर कडे अनुशासन और उत्कृष्ट शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध थे। माँ ने उनके पास मुझे पढ़ाने की विनती की। परन्तु सर के छोटे से घर में बैठने के लिए जगह ही नहीं थी। इसलिये सर ने पढ़ाने से मना कर दिया
माँ ने उनसे बहुत विनती की। और हमारे घर आकर पढ़ाने के लिये मुँह मांगी फीस का बोला। सर ने फीस के लिये तो मना कर दिया। परन्तु अनेक प्रकार की विनती करने पर घर आकर पढ़ाने को तैयार हो गये। पहिले दिन सर आये। हमेशा की तरह मैं शैतानी करने लगा। सर ने मुझे समझाया बेटा में पैसों के लिए नही पड़ता में तो तुम्हारी उस माँ की विनती पर आया हूँ जो तुम्हारे लिए चिंतित रहती है अपनी माँ के लिए ही मन लगा कर पड़ लो मेने पहला इंसान देखा तो जो मेरे घर आकर मुझे फ्री में पड़ा रहा था बो भी मेरी माँ की चिंता देखकर मुझे खुद पर बहुत शर्म आई। सर की उन बातों का असर ऐसा हुआ कि मैं चुपचाप बैठने लगा। ,पहले हफ्ते में ही मुझे पढ़ने में रूचि जागृत हो गई। फिर मुझे पढ़ाई के अलाबा कुछ भी सुझाई नहीं देता था। सर इतना अच्छा पढ़ाते थे, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान जैसे विषय जो मुझे कठिन लगते थे वो अब सरल लगने लगे थे। सर कभी आते नहीं थे तो मैं चिंतित हो जाता था। नवीं कक्षा में मैं दुसरे नम्बर पर आया। माँ-पिताजी को खुब खुशी हुई। मैं तो, जैसे हवा में उडने लगा था। दसवीं में मैंने सारी क्लासेस छोड दी और सिर्फ पाटिल सर से ही पढ़ने लगा था। और दसवीं में मेरीट में आकर मैंने सबको चौंका दिया था।"
"माय गुडनेस...! पर सर फिर भी आपने सर को फीस नहीं दी?"
जनरल मैनेजर ने पुछा।
"मेरे माँ - पिताजी के साथ मैं सर के घर पेढे लेकर गया। पिताजी ने सर को एक लाख रूपये का चेक दिया। सर ने वो नहीं लिया। उस समय सर क्या बोले वो मुझे आज भी याद हैं।
सर बोले — "मैंने कुछ भी नहीं किया। आपका लडका ही बुद्धिमान हैं। मैंने सिर्फ़ उसे रास्ता बताया। और मैं ज्ञान नहीं बेचता। मैं वो दान देता हूँ। बाद में मैं सर के मार्गदर्शन में ही बारहवीं मे पुनः मेरीट में आया। बाद में बी. ई. करने के बाद अमेरिका जाकर एम. एस. किया। और अपने शहर में ही यह कम्पनी शुरु की। एक पत्थर को तराशकर सर ने हीरा बना दिया। और मैं ही नहीं तो सर ने ऐसे अनेक असंख्य हीरे बनाये हैं। सर आपको कोटि कोटि प्रणाम...!!"
चेयरमैन साहब ने अपनी आँखों में आये अश्रु रूमाल से पोंछे।
"परन्तु यह बात तो अद्भुत ही हैं कि, बाहर शिक्षा का और ज्ञानदान का बाजार भरा पडा होकर भी सर ने एक रूपया भी न लेते हुए हजारों विद्यार्थियों को पढ़ाया, न केवल पढ़ाये पर उनमें पढ़ने की रूचि भी जगाई। वाह सर मान गये आपको और आपके आदर्श को।"
शरद राव जी की ओर देखकर जी. एम ने कहा।
"मेरे पिताजी भी उन्हीं मे से एक। एक समय भूखे रह लेंगे, पर अनाज में मिलावट करके बेचेंगे नहीं।"चैयरमैन बोले
बहुत देर तक कोई कुछ भी नहीं बोला।
फिर चेयरमैन ने शरद राव जी से पुछा, - "सर आपने मकान बदल लिया या उसी मकान में हैं रहते हैं।"
"उसी पुराने मकान में रहते हैं सर! "
शरदराव जी के बदले में राहूल ने ही उत्तर दिया।
उस उत्तर में पिताजी के प्रति छिपी नाराजगी तत्पर चेयरमैन साहब की समझ में आ गई ।
"तय रहा फिर। सर आज मैं आपको गुरू दक्षिणा दे रहा हूँ। इसी शहर में मैंने कुछ फ्लैट्स ले रखे हैं। उसमें से एक थ्री बी. एच. के. का मकान आपके नाम कर रहा हूँ....."
"क्या.?"
शरद राव और राहूल दोनों आश्चर्य चकित रूप से बोलें। "नहीं नहीं इतनी बडी गुरू दक्षिणा नहीं चाहिये मुझे।" शरद राव जी आग्रहपूर्वक बोले।
चेयरमैन साहब ने शरदराव जी के हाथ को अपने हाथ में लिया। "सर, प्लीज.... ना मत करिये और मुझे माफ करें। काम की अधिकता में आपकी गुरू दक्षिणा देने में पहले ही बहुत देर हो चुकी हैं।"
फिर राहूल की ओर देखते हुए उन्होंने पुछ लिया, राहूल तुम्हारी शादी हो गई क्या?"
"नहीं सर, पक्की हो गई हैं। और जब तक रहने को अच्छा घर नहीं मिल जाता तब तक शादी नहीं हो सकती। ऐसी शर्त मेरे ससुरजी ने रखी होने से अभी तक शादी की डेट फिक्स नहीं की। तो फिर हाॅल भी बुक नहीं किया।"
चेयरमैन ने फोन उठाया और किसी से बात करने लगे।समाधान कारक चेहरे से फोन रखकर, धीरे से बोले "अब चिंता की कोई बात नहीं। तुम्हारे मेरीज गार्डन का काम हो गया। "सागर लान्स" तो मालूम ही होगा!"
"सर वह तो बहूत महंगा हैं..."
"अरे तुझे कहाँ पैसे चुकाने हैं। सर के सारे विद्यार्थी सर के लिये कुछ भी कर सकते हैं। सर के बस एक आवाज देने की बात हैं।
राहूल अत्यधिक खुशी से हाथ जोडकर बोला सर धन्यवाद। "धन्यवाद मुझे नहीं, तुम्हारे पिताश्री को दो राहूल! ये उनकी ईमानदारी और पुण्य हैं। और मुझे एक वचन दो राहूल! सर के अंतिम सांस तक तुम उन्हें अलग नहीं करोगे और उन्हें कोई दुख भी नहीं होने दोगे।
"नहीं सर। मैं वचन देता हूँ, वैसा कुछ भी नहीं होगा।" राहूल हाथ जोडकर बोला।
शाम को जब राहूल घर आया तब, शरद राव जी किताब पढ रहे थे। पुष्पाबाई पास ही सब्जी काट रही थी।
राहूल ने बैग रखी और शरद राव के पाँव पकडकर बोला — "पापा , मुझसे गलती हो गई। मैं आपको आज तक गलत समझता रहा। मुझे पता नहीं था पापा आप इतने बडे व्यक्तित्व के धनी और इतने महान हो।"
शरद राव जी ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया।
अपना लडका क्यों रो रहा हैं, पुष्पाबाई की समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु कुछ अच्छा घटित हुआ हैं।
इसलिये पिता-पुत्र में प्यार उमड रहा हैं। ये देखकर उनके नयनों से भी कुछ बूंदे गाल पर लुढक आई।
कृपया अपने पिताजी से कभी यह न कहे कि "आपने मेरे लिये किया ही क्या हैं? जो भी कमाना हो वो स्वयं अर्जित करें। उन्होंने आपको जीवन दिया है एक पहचान दी है जिसके आगे सब छोटा है 🙏🙏
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bahoot badhiya
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